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कविता

अंतर मैं बासी पै प्रबासी को सो अंतर है

घनानंद


अंतर मैं बासी पै प्रबासी को सो अंतर है,
               मेरी न सुनत दैया आपनीयौ ना कहौ।
लोचननि तारे ह्वै सुझायो सब, सूझी नाहिं,
              बूझी न परति, ऐसैं सोचनि कहा दहौ।
हौ तौ जानराय, जाने जाहु न अजान यातें,
             आनंद के घन छाय छाय उघरे रहौ।
मूरति मया की हा हा! सूरति दिखैये नेकु,
             हमैं खोय या बिधि हो! कौन धी लहा लहौ।।


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